Chirag-e-Delhi हजरत नसीरुद्दीन महमूद चिराग ए दिल्ली की दरगाह चिराग दिल्ली दरगाह की यात्रा सामान्य से परे एक गहन अनुभव है। दिल्ली के मध्य में स्थित, यह आध्यात्मिक स्थल शांति और भक्ति की आभा का अनुभव कराता है। जैसे ही आप दरगाह के पास पहुंचते हैं, धूप की सुगंध और प्रार्थनाओं की भावपूर्ण गूंज एक पवित्र वातावरण बनाती है। टिमटिमाते दीपक और चमकीले रंग एक रहस्यमय वातावरण बनाते हैं। चाहे सांत्वना, आध्यात्मिक आत्मनिरीक्षण, या शांत चिंतन के क्षण की तलाश हो, चिराग दिल्ली दरगाह सभी के लिए एक आश्रय प्रदान करती है। इतिहास और आध्यात्मिकता से भरपूर इस प्रसिद्ध स्थान का कालातीत आकर्षण इसे आंतरिक शांति और दिव्य संबंध चाहने वालों के लिए एक पसंदीदा स्थान बनाता है।
Chirag e Delhi Dargah: आस्था की चमक में काव्यात्मक तीर्थयात्रा
चिराग दिल्ली आज एक बुजुर्ग सूफी संत की दरगाह Chirag-e-Delhi की सैर और हजारी करने का मन हुआ तो , रोशन चिराग ए देहली रहमतुल्लाह साहेब के यहां पहुंचना हुआ। अगर कभी आपका चिराग दिल्ली के पास से गुजरना हो तो घूमने आइएगा। यूं तो आज चिराग दिल्ली गांव का नाम ही इन्ही हज़रत की बदौलत पड़ा है। यह गांव हिंदू मुसलमान की मिलिजुली आबादी से आबाद है। कहा जाता है, उस ज़माने में यह गांव चारों ओर दीवार से घिरा था। आसपास बड़े छायादार पेड़, सुंदर बगीचे और मुसाफिरों के लिए सराय, कुएं और अरावली से निकल कर आता हुआ, सतपुला से गुजरती हुईं एक पानी की नहर भी थी जो आज गर्दिश ए जमाना से बेबस होकर एक नाले में तब्दील हो गई है।
चिराग दिल्ली फ्लाईओवर से मुड़ कर छोटी सड़क पर थोड़ा सा चल कर, एक दो मंजिला पुराना ( अठारहवीं सदी) का एक दरवाज़ा, चिराग दिल्ली गांव में आपका स्वागत करता हुआ मिलेगा। यहीं से आप अपने मुबारक कदम से दाखिल होंगे। यहां छोटी छोटी गलियां , कोने में कालीन पर बैठा मोची, कोई दर्जी, कुछ परचून की दुकानें, अपनी सोच में चलती कोई गाय या कोई नटखट सा बकरा आपका इस्तेकबाल करता हुआ सा नज़र आएगा।। रास्ते में शीतला माता मंदिर और शिव मंदिर को नमस्कार करते हुए आप एक चौक से मुलाकात करेंगे। और सामने ही आपको नसीर उदीन महमूद साहेब की दरगाह के दरवाजे का दीदार हो जायेगा। दरवाजे के बाएं ओर खादिम परिवार से ताल्लुक रखते हुए रंग बिरंगे गोटे वाली चादरें , गुलाब के फूलों से सजी टोकरियां अगरबत्ती मोमबत्ती की दुकानें नजर आती है।
Chirag e Delhi Dargah:प्रकाश के पथकी रहस्यमय सुंदरता
चार दरवाजों में से, यह पूर्वी दरवाजा है जिसे ‘ताकेठ दरवाजा’ कहा जाता है। यह दो मंजिला दरवाजा है जिसमें दो खम्भे हैं। कोई यह देख सकता है कि वे दरवाजे को पकड़ने के लिए बनाए गए थे। आज ऐसा कोई लकड़ी का दरवाजा नहीं है। यह मकबरे की एक खास खूबसूरत संरचना है जो आपका ध्यान आकर्षित करता है।
बस आप Chirag-e-Delhi पहुंच गए। बीस रुपए की गुलाब की तश्तरी ले कर आप अपने जूते वहीं रख छोड़िए। गुरुवार के दिन यहां श्रद्धालु लोगों की भीड़ अधिक होती है। आप ऊंचे मेहराब दार दरवाजे से बढ़ते हुए एक शांत से खुले आंगन में प्रवेश करते हैं। यहां आपकी नजर के सामने कुछ हरे सुनहरे गुंबदों, यहां मंद रौशनी, कुछ जलते चिराग और मोमबत्तियां चारो ओर फैली अगरबती की सुगंध कुछ हरे चमकीले साटन मखमली पर्दे कुछ ढकी अन ढकी कब्रों का मंजर नजर आता है। सूफियों पर इतिहास लिखने वाले यह बताते हैं की हज़रत नसीरूदीन साहेब Chirag-e-Delhi की दरगाह दिल्ली के सुल्तान, फिरोज शाह तुगलक ने , बनवाई थी जिसमें बाद में दो और द्वार जोड़े गए। सन 1358 ईसवी में बनवाई थी। फिर गुजरते वक्त ए दरिया के साथ इस में एक छोटी सी मस्जिद मुगल बादशाह फरुख्सियार ने भी बनवाई थी। हॉल को पहले ‘मजलिस खाना’ या ‘असेंबली हॉल’ के नाम से जाना जाता था। इसे ‘महफिल खाना’ या ‘संगोष्ठी हॉल’ भी कहा जाता था।
Chirag e Delhi Dargah: आत्मा की शाश्वत राह पर चलने वाले शिष्य
खादिम बताते हैं की Chirag-e-Delhi आसपास की कब्रें हज़रत साहेब के मुरीदों और रिश्तेदारों की हैं। वो अपनी बात को आगे जोड़ते हुए कहते हैं। हज़रत साहेब ने अपनी जिंदगी के दौरान अपनी आखिरी खामोश ए आरामगाह चुन ली थी। एक पल के लिए, आप दुनिया जहान की भीड़ से दूर। आज की गूगल दुनिया से परे, अपने आप को रहस्यवादी परमानंद के हवाले करना चाहते हैं I और उस समय की यात्रा करना चाहते हैं जब दुआ में असर और आस्थाओं में चमत्कार हुआ करते थे। दोनों समुदाय नियमित रूप से विभिन्न स्थानीय त्योहारों में मेलजोल करते हैं। कई स्थानीय हिंदुओं का कहना है कि जब उनके परिवार के सदस्य बीमार पड़ते हैं तो वे उन्हें चिराग दिल्ली दरगाह ले जाते हैं। वे कहते हैं कि यह उन्हें चमत्कारिक रूप से ठीक करने में मदद करता है, दरगाह अपने आप में स्थापत्य का एक अत्यंत सुंदर नमूना है। यह अपने लिए एक बहुत ही पवित्र और पवित्र एहसास रखता है, जिसके कारण आप बार-बार यहां आना चाहेंगे। प्रार्थना के घंटों के दौरान, भक्त मक्का की ओर मुड़ जाते हैं। बाकी समय वे मंदिर के सामने चुपचाप बैठे रहते हैं – आंखें बंद कर लेते हैं। कभी-कभी, एक खादिम – दरगाह के पारंपरिक कार्यवाहक – से अनुरोध किया जाता है कि वह एक व्यक्ति को जिन्नों से मुक्त करे। खादिम धीरे से पीड़ित व्यक्ति के सिर पर मोर के पंख लहराता है और अदृश्य आत्माओं को दूर जाने का आदेश देता है।
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Chirag e Delhi: दिल्ली सल्तनत का इतिहास
दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के साथ अहं की जंग के परिणामस्वरूप उन्हें ‘रोशन चिराग-ए-दिल्ली’ Chirag-e-Delhi की उपाधि से सम्मानित किया गया था। हज़रत को उनकी ‘सरकार’, हज़रत निज़ामुद्दीन द्वारा एक बावली बनाने के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था, उस समय सुल्तान जब तुगलकाबाद में किले का निर्माण करवा रहे थे। हज़रत नसीरुद्दीन ने दिन में किले में काम करने के बाद रात में बावली पर काम करने के लिए मजदूरों को काम पर रखा था।
एक दिन गश्त पर, सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को इस बात का पता चला और यह सोचकर क्रोधित हो गया कि उसके मजदूरों को आराम नहीं मिलेगा, और उसका गौरव घायल हो गया क्योंकि उससे इतने बड़े निर्माण की अनुमति नहीं ली गई थी। एक शाही फरमान जारी किया गया था कि यदि बावली की काम फोरन रोका न गया तो पूरे इलाके का तेल में बेचना या लेजाने पर पाबंदी लगा दी जायेगी।
हज़रत ने कोई ध्यान नहीं दिया, और अगले ही दिन मजदूरों के पास रात के कामों के लिए दीये जलाने के लिए तेल नहीं था। जब दूसरों को लगा कि सब कुछ खो गया है, तो हज़रत नसीरुद्दीन ने पानी से भरी एक हथेली ली और सैकड़ों गवाहों के सामने रुई की एक बत्ती डुबो कर चमत्कारिक ढंग से दीया जलाया। इस ‘करामात’ ने उन्हें Chirag-e-Delhi वह उपाधि दी जिसके साथ वे आज भी जाने जाते हैं और उनकी पूजा इबादत की जाती है।
खादिम एक और किस्सा भी बयान करते हैं, कि कैसे वह एक बार अपने एक मुर्शिद और कुछ अन्य सूफियों की ‘महफिल’ (सभा) में गए जहां उन्हें वह जगह पसंद नहीं थी जहां उन्हें बैठने के लिए कहा गया था।
ऐसा इसलिए था क्योंकि उनकी पीठ को कुछ अन्य गणमान्य व्यक्तियों का सामना करना पड़ेगा जो वहां मौजूद थे। इस पर उनके गुरु निजामुद्दीन औलिया ने कहा कि ”चिराग की कोई पीठ नहीं होती.
नसीरुद्दीन महमूद चिराग देहलवी (या चिराग दिल्ली) Chirag-e-Delhi का जन्म 1274 में अयोध्या, उत्तर प्रदेश में नसीरुद्दीन महमूद अल हसनी के रूप में हुआ था। देहलवी के पिता याह्या अल हसनी, जो पश्मीना का व्यापार करते थे। और उनके दादा शेख याह्या अब्दुल लतीफ अल हसनी पहले उत्तर पूर्वी ईरान के खुरासान से लाहौर चले गए और फिर ओध में अयोध्या में बस गए। जब वह नौ साल के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई उनके लिए एक बड़ा झटका था।
उन्हें अब्दुल करीम शेरवानी और फिर इफ्तिखार-उद-दीन गिलानी ने शिक्षा दी। हजरत नसीरुद्दीन चालीस वर्ष की आयु में, वह अयोध्या छोड़ कर दिल्ली चले गए, जहाँ जहां वे हजरत निजामुद्दीन औलिया के घेरे में शामिल हो गए और उनके ‘मुरीद’ बन गए। निजामुद्दीन औलिया के जीवन के अंत के दौरान, उन्होंने देखा कि उनके मुरीद, समय के साथ, वह एक प्रसिद्ध फ़ारसी कवि बन गए। नसीरुद्दीन ने उन सभी कार्यों को पूरा कर लिया है, जो एक दरवेश बनने के लिए आवश्यक हैं, उन्होंने तुरंत उन्हें एक ‘खलीफा’ (दिव्य उत्तराधिकारी) के रूप में नियुक्त किया, जिसे उनके अनुरूप माना जाता था। यह परमात्मा की इच्छा।
नसरुद्दीन चिराग देहलवी,Chirag-e-Delhi अपने आध्यात्मिक गुरु निजामुद्दीन औलिया के विपरीत, सीमा में विश्वास नहीं करते थे, जिसे उस समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा गैर-इस्लामी माना जाता था। हालांकि, उन्होंने इसके खिलाफ कोई खास फैसला नहीं किया। इसलिए आज भी दिल्ली में उनकी दरगाह के पास कव्वाली नहीं बजाई जाती है। नसरुद्दीन के वंशज दूर-दूर तक पाए जाते हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश दक्षिण से हैदराबाद चले गए। बड़ी बूआ या बड़ी बीबी की दरगाह, जिसे नसीरुद्दीन महमूद चिराग देहलवी की बड़ी बहन कहा जाता है, आज भी अयोध्या शहर में मौजूद है।
उनकी नियुक्ति के बाद, हज़रत नसीरुद्दीन को तबरुकत (पवित्र अवशेष) दिया गया, जो चिश्ती आदेश के थे।
भले ही निजामुद्दीन औलिया के एक अत्यंत प्रतिभाशाली और धर्मनिष्ठ मुरीद अमीर खुसरो हर तरह से काबिल थे। यह नसीरुद्दीन था जिसे खलीफा बनाया गया था, क्योंकि निजामुद्दीन औलिया के अनुसार, यह अल्लाह की इच्छा थी।
1356 में चिराग दिल्ली Chirag-e-Delhi का इंतकाल को गया और इस दुनिया से रुखसत हो गए। और उन के जाने के बाद सूफियों की यह चिश्ती सिलसले का अंत हो गया।
Soulful Journey: Exploring the Sufi Dargah in Delhi
चिश्ती संप्रदाय के मशहूर सूफी संत को “चिराग देहलवी (दिल्ली का दीपक)” के नाम से जाना जाता था।
शेख हजरत नसीरुद्दीन महमूदी
नसीरुद्दीन महमूद चिराग दिल्ली (सीए 1274-1356) 14वीं सदी के सूफी कवि और चिश्ती वंश के सूफी संत थे। वह प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया के शागिर्द थे। आगे चल कर वह उनके उत्तराधिकारी बने। वह दिल्ली के चिश्ती हुकम के अंतिम महत्वपूर्ण सूफी थे। उन्हें “रोशन चिराग दिल्ली” की उपाधि दी गई, जिसके मायने उर्दू में “दिल्ली का दीपक” है।
आज चिराग दिल्ली का गाँव, अपने आप में, एक हेरिटेज सैर की जा सकती है। यह दिल्ली के सबसे अछूते शहरी गाँवों में से एक है, जिसमें एक लंबे और आकर्षक अतीत के कई निशान मौजूद हैं । इसके प्रवेश द्वार। उनके गांव के चौक में तो कभी पुराने स्थापत्य के दृश्य दिखाई देते हैं। गांव की दीवार, इसके द्वार और टावरों के साथ, मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ (आर। 1719-48 ईस्वी) द्वारा बनाई गई थी। हालाँकि अधिकांश गाँवों में अब आधुनिक इमारतें हैं, चिराग दिल्ली में अभी भी कई पुराने घर हैं। मुगल हवेलियाँ, औपनिवेशिक संरचनाएँ और बहुत कुछ देखने को है। जो की अल्फाजों में बताया नही जा सकता।
चिरागदली दरगाह की यात्रा के बाद मुझे काफी तरोताजा महसूस हुआ और मन शांत हो गया। दरगाह के शांत वातावरण, गूंजती प्रार्थनाओं और आध्यात्मिक ऊर्जा ने मेरी आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ी है। शांत वातावरण के बीच, मुझे आंतरिक शांति और शांति की गहरी अनुभूति हुई। दरगाह की कालातीत ज्ञान और आध्यात्मिक जीवंतता ने ध्यान और चिंतन के लिए एक स्वर्ग प्रदान किया है। जैसे ही मैं जा रहा हूँ, मैं अपने साथ न केवल भौतिक यात्रा की यादें ले जा रहा हूँ बल्कि वह स्थायी शांति भी ले जा रहा हूँ जो परमात्मा से जुड़ने से मिलती है। चिराग डाली दरगाह वास्तव में मन की शांति का स्वर्ग बन गई है, जिससे मुझे उद्देश्य और शांति की एक नई अनुभूति मिली है।
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Mujhe garv hai ki mera janm Chirag dehlvi mu hua hai